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दर्द – ए – गांव – सतेली : नमक के लिए 20 किमी का सफ़र!

*जगदीश ग्रामीण*”

मिनी मसूरी” का अस्तित्व बचाना सबसे बड़ी चुनौती

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“मिनी मसूरी” के नाम से प्रसिद्ध “सतेली गांव” पलायन की पीड़ा भोगने को आज अभिशप्त है।
स्थाई रूप से दो परिवार ही (मूल निवासी) आज गांव में निवास कर रहे हैं। “श्री रामलाल तिवाड़ी जी” और “श्री विमल चंद्र तिवाड़ी जी” का परिवार।
27 साल से “श्री सुखराम नेगी जी” का परिवार इस गांव की रौनक बढ़ा रहा है। वे इस गांव में परिवार सहित रहकर खेती करते हैं और भवन स्वामी के घर को सुरक्षित रखे हुए हैं हालांकि उन्होंने अब सतेली के निकट ही “बमेंडी गांव” में अपना आवास बना लिया है। किसी भी दिन राम राम दोस्तों कहकर अपने आशियाने में वृद्धावस्था का सुख लेने के लिए प्रस्थान कर सकते हैं। आपकी आयु इस समय 86 वर्ष है।
कुछ लोग समय – समय पर अपने घर गांव की देखभाल करने के लिए गांव जरूर आते रहते हैं। आना चाहिए अपनी जन्मभूमि, मातृभूमि के दर्शन के लिए। हम जड़ों से कटकर नहीं जी सकते हैं।
“नाहीं ग्राम पंचायत” का हिस्सा है यह “सतेली गांव”। यहां का आंगनबाड़ी केंद्र बंद हो चुका है। राजकीय प्राथमिक विद्यालय सतेली और राजकीय उच्च प्राथमिक विद्यालय सतेली भी बंदी के कगार पर हैं।
“सतेली” से लगभग 4 किलोमीटर की दूरी पर स्थित नाहीं ग्राम पंचायत के ही एक और गांव “रैठवाण गांव” का राजकीय प्राथमिक विद्यालय कुछ साल पहले बंद हो चुका है क्योंकि गांव के सभी लोग पलायन कर गए।
सतेली गांव में बांज, बुरांश का घना जंगल है। सामने बनाली गांव (टिहरी गढ़वाल) दिखाई देता है। सुंदर रमणीक स्थान है।
लेकिन सुख – दुःख में कोई सहारा नहीं है। अपनों को गले लगाने के लिए शहर जाना पड़ता है जो कि यातायात की सुविधा न होने के कारण बार – बार संभव नहीं हो पाता है। पेयजल समस्या, यातायात की समस्या, दैनिक उपयोग की वस्तुओं, खाद्य सामग्री के लिए 20 किलोमीटर की दूरी नापना—–सोचकर मन व्यथित हो जाता है।


पहले इस गांव में गैरोला लोग रहते थे। लगभग 250 साल पहले आई एक आपदा में सारा गांव बह गया था और कोई भी जीवित नहीं बचा। इसलिए इस गांव का पुराना नाम “गैरवाल गांव” है। उसके पश्चात इस गांव में कुमाऊं से “तिवाड़ी लोग” आए। “गौतम गोत्र” के तिवाड़ी लोगों में कहा जाता है कि हर पीढ़ी में कोई न कोई व्यक्ति “अलोणिया” (नमक न खाने वाला) होता है।


“सतेली” से पलायन करके तिवाड़ी लोग पुन्नीवाला, रामनगर डांडा, थानों, तलाई, भोगपुर, देहरादून, हिमाचल—–आदि स्थानों पर बस गए हैं। पुन्नीवाला भोगपुर में तिवाड़ी लोगों ने अपनी कुल देवी “मां सुरकंडा” का भव्य मंदिर बनाया है। तिवाड़ी लोगों में हर घर में आज कर्म कांड के प्रकांड विद्वान हैं और अधिकांश लोग “व्यासपीठ” पर बैठते हैं। रामायण, भागवत कथा करते हैं।
“सतेली” में मां सुरकंडा का प्राचीन मंदिर है। हर तीसरे साल “मालकोट क्षेत्र” से हजारों की संख्या में लोग इस गांव से होकर तीन दिन की सुरकंडा देवी मंदिर (कद्दूखाल) पैदल यात्रा पर ढोल – दमौ के साथ जाते थे। सभी लोग इस सतेली गांव के मां सुरकंडा देवी के मंदिर में दर्शन करके ही आगे बढ़ते थे।लगभग 20 साल पहले पैदल यात्रा बंद हो गई है।


“गोरण” नामक भड़ के नाम से यहां “गोरण का डांडा” है। “गोरण गुफा” है, जिसमें 25 – 30 लोग रह सकते हैं। इस गुफा से “सुरंग” दिल्ली तक जाती थी। जनश्रुति है कि “गोरण भड़” रात में “दीपक जलाकर” उस सुरंग से होकर दिल्ली जाता था और वहां से सामान लूटकर उसी सुरंग से सुबह वापस घर आता था।
पर्यटन, फ़िल्म सूटिंग, पैरा ग्लाइडिंग, साहसिक पर्यटन, ट्रैकिंग की अपार सम्भावनाओं को समेटे हुए इस गांव के अस्तित्व को बचाए रखना और भू माफियाओं की गिद्ध दृष्टि से इस “मिनी मसूरी” को बचाना आज सबसे बड़ी चुनौती है।

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