वर्ष 1971 के भारत—पाक युद्ध में उत्तराखंडियों ने मनवाया था लोहा, 255 जवान हुए थे शहीद
74 जांबाजों को मिले वीरता पदक, प्रतिवर्ष 16 दिसंबर को मनाया जाता है विजय दिवस
देहरादून । उत्तराखंड को वीरभूमि यूं ही नहीं कहा जाता है। यहां के वीर जवानों ने रणभूमि में समय—समय पर अपनी बहादुरी का लोहा मनवाया है। वर्ष 1971 का भारत—पाक युद्ध भी इसी वीरता व शौर्य का प्रतीक है। भारतीय सेना की इस अटूट विजयगाथा में उत्तराखंड के रणबांकुरों का बलिदान नहीं भुलाया जा सकता। इस युद्ध में राज्य के 255 रणबांकुरों ने मातृभूमि की रक्षा के लिए कुर्बानी दी थी। रणभूमि में दुश्मन से मोर्चा लेते राज्य के 78 सैनिक घायल भी हुए थे। इन रणबांकुरों की कुर्बानी व अदम्य साहस को पूरी दुनिया ने माना। यही वजह कि इस जंग में दुश्मन सेना से दो—दो हाथ करने वाले राज्य के 74 जांबाजों को वीरता पदक मिले थे। जवानों की वीरगाथा का स्मरण करने के लिए प्रतिवर्ष 16 दिसंबर को विजय दिवस मनाया जाता है।
जवानों के शौर्य और साहस की यह गाथा आज भी भावी पीढ$ी में जोश भरती है। इतिहास गवाह है कि वर्ष 1971 में हुए युद्ध में दुश्मन सेना को नाको चने चबाने में उत्तराखंड के जवान पीछे नहीं रहे। भारतीय सेना के तत्कालीन सेनाध्यक्ष सैम मानेका (बाद में फील्ड मार्शल) व बांग्लादेश में सेना की पूर्वी कमान का नेतृत्व करने वाले सैन्य कमांडर ले. जनरल जगजीत सिंह अरोड$ा ने भी प्रदेश के वीर जवानों के साहस को सलाम किया था। युद्ध में शामिल होने वाले थलसेना, नौसेना व वायुसेना के तमाम योद्धा जंग के उन पलों को याद कर आज भी जोशीले हो जाते हैं।
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विजयगाथा संजोए है इंडियन मिलिट्री एकेडमी
पाकिस्तानी सेना के जनरल नियाजी की पिस्तौल व काफी टेबल बुक है सुरक्षित
देहरादून। 16 दिसंबर ही वह दिन था जब पाकिस्तान सेना के लेफ्टिनेंट जनरल एएके नियाजी ने अपने करीब 90 हजार सैनिकों के साथ भारतीय सेना के लेफ्टिनेंट जनरल जगजीत सिंह अरोडा के सामने आत्मसमर्पण कर हथियार डाल दिए थे। जनरल नियाजी के आत्मसमर्पण करने के साथ ही यह युद्ध भी समाप्त हो गया। इस दौरान जनरल नियाजी ने अपनी पिस्तौल जनरल अरोडा को सौंप दी थी। यह पिस्तौल आज भी भावी सैन्य अफसरों में जोश भरने का काम करती है।
भारतीय सेना का गौरवशाली इतिहास हमेशा से ही युवाआं के लिए प्रेरणा का स्रोत रहा है। देहरादून स्थित इंडियन मिलिट्री एकेडमी (आईएमए) के म्यूजियम में रखे 1971 भारत—पाकिस्तान युद्ध की एतिहासिक धरोहर और दस्तावेज कैडेटों में अपने गौरवशाली इतिहास और परंपरा को कायम रखने की प्रेरणा देते हैं। इनमें सबसे प्रमुख जनरल नियाजी की वह पिस्तौल है जो उन्होंने पाकिस्तानी सेना के आत्म—समर्पण के दौरान पूर्वी कमान के जनरल आफिसर कमांडिंग ले. जनरल अरोड$ को सौंपी थी। जनरल अरोडा ने यह पिस्टल आईएमए के गोल्डन जुबली वर्ष 1982 में आईएमए को प्रदान की थी। इसी युद्ध से जुड$ी दूसरी वस्तु एक पाकिस्तानी ध्वज है जो आईएमए के म्यूजियम में उल्टा लटका हुआ है। इस ध्वज को भारतीय सेना ने पाकिस्तान की 31 पंजाब बटालियन से सात से नौ सितंबर तक चले सिलहत युद्ध के दौरान कब्जे में लिया था। भारत—पाकिस्तान के बीच 1971 में हुए युद्ध की एक अन्य निशानी जनरल नियाजी की काफी टेबल बुक भी आईएमए में मौजूद है। यह निशानी कर्नल (रिटायर्ड) रमेश भनोट ने 38 वर्ष बाद जून 2008 में आईएमए को सौंपी थी।