साहित्य

कारगिल दिवस पर शिक्षक विजय प्रकाश, अंशी कमल और बेलीराम कंसवाल की श्रीदेव सुमन पर लिखी कविता पढ़ें

युद्ध था भीषण कठिन वह,
शत्रु चोटी पर चढ़े थे।
 वीर अपने कष्ट में थे ,
शिखर के पेंदे खड़े थे।
 जीत लगती थी असंभव,
राष्ट्र पर चिंता थी पसरी।
हे विधाता  किस तरह से,
पीछे ठेले सेना अरि की।
किन्तु सैनिक भारती के,
 रुद्र का अवतार जिनमें,
है शिवा सा युद्ध कौशल,
हमीद का आकार उनमें।
जान की बाजी लगाकर,
चल पड़े जांबाज अपने।
चूम मिट्टी निज वतन की,
बढे ले हथियार अपने।
देश पर बलिदान का वह,
युद्ध उत्सव चल पड़ा फिर।
तान कर के ध्वज तिरंगा,
जीत का पग बढ चला फिर।
रक्त का करके तिलक तब,
आश की देवी जगायी।
देश के जय नाद ने फिर,
सब निराशा थी भगाई।
ठेल डाला अरि समूह को,
देश की सीमा से बाहर।
देश के रण बांकुरों ने,
जीत का उपहार बांटा।
कारगिल विजय दिवस है,
सेना के गुणगान का दिन।
समर भू से जो न लौटे ,
उनके यश मान का दिन।
———————–विजय प्रकाश रतूड़ी।
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*न सिन्दूर पोंछो न चूड़ी उतारो*

न सिंदूर पोछो, न चूड़ी उतारो,
न बोलो कभी भी,कि मर वह गया है।
तिरंगे में लिपटा, जो सुत भारती का,
सदा के लिए हो, अमर वह गया है।।

हुआ हँसते – हँसते जो, कुर्बां वतन पे,
उसी की महक से, महकता चमन ये,
कहें कैसे हम वह, नहीं इस जहाँ में,
दिलों में तो कर सबके घर वह गया है।
तिरंगे में लिपटा, जो सुत भारती का,
सदा के लिए हो, अमर वह गया है।।

वतन को ही महबूब, माना था जिसने,
वतन को पिता मातु, जाना था जिसने,
बहाना न आँसू, शहादत पे उसकी
भले करके छलनी, जिगर वह गया है।
तिरंगे में लिपटा, जो सुत भारती का
सदा के लिए हो, अमर हो गया है।।

कभी पीठ रण में, दिखाई न जिसने
कभी शान माँ की, घटाई न जिसने
है जब तक हिमाला, मुकुट भाल माँ का,
न कहना कभी भी, गुजर वह गया है।
तिरंगे में लिपटा, जो सुत भारती का,
सदा के लिए हो, अमर हो गया है

जमाना सदा उसकी, गाथा कहेगा,
अमर था अमर है, अमर ही रहेगा,
रहें चाँद सूरज, ये जब तक गगन में,
अमर नाम अपना, तो कर वह गया है।
तिरंगे में लिपटा, जो सुत भारती का,
सदा के लिए हो, अमर वह गया है।।

*अंशी कमल*

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ऐ सुमन तुम्हें शत-शत नमन।।
नहीं धरा में खिले स्वच्छंद
सब कैद बगीचे में सारे ,
नहीं सुमन सा कोई सुमन अब
स्वारथ में खिलते सारे।।
अपना मकसद भूल गए सब
हाकिम के गुण गानों में,
सुमन की खुशबू आती है बस
सुमन तेरे बलिदानों में ।।
जुल्मी के जुल्मों का डटकर
तूने ही प्रतिकार किया ,
बेबस प्रजा को राजा से
तूने ही आजाद किया ।।
भूल न पाए आज तलक हम
सुमन तेरे उपकारों को,
 माटी का तू लाल अकेला
 हिला दिया दरबारों को ।।
सुमन नहीं वह कंकर था
राजा के नयन निशानों में,
 बलिदानों की गूंज आज भी
 टिहरी के बंदीखानों में ।।
डूब गई वह धरती दुख में
 जहां तेरा बलिदान हुआ,
 तेरे शाप से सापित सारे
 राजवंश  का पतन हुआ।।
कांटो में खिलने वाला बस
इक तू वह फूल अकेला,
 हे राजतंत्र के अंधफकीरों
 ये बलिदानों का मेला।।
कुचल दिया वह सुमन निरंकुश
 राजा के गद्दारों ने ,
छुरा पीठ पर भोंक दिया था
उसके सिपहसालारों ने।।
मुरझा कर खुद हमको जिसने
सुमन सा खिलना सिखलाया,
नमन करें उस सुमन को मन से
जिसने जीवन का मकसद बतलाया।
जिसने जीवन का मकसद बतलाया।।
बेलीराम कनस्वाल 
भेट्टी,  ग्यारह गांव, टिहरी गढ़वाल।

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